Illustration: Shyam Sundar Jyani

जलवायु परिवर्तन के दौर में पर्यावरण संवेदनशीलता व लोचशीलता से ही जलवायु सशक्तीकरण का रास्ता निकाला जा सकता है I दशकों से राजनैतिक व प्रशासनिक बहस से गुजरते हुए पर्यावरण सरंक्षण की गाड़ी तकनीकी समाधान के स्टेशन पर आकर खड़ी हो जाती है जबकि यह समस्या सामाजिक है लिहाज़ा सामुदायिक जीवन में ही हमें इसके समाधान के सूत्र ढूंढने होंगे I चूंकि समाज अपने आप में कोई प्रतिनिधि इकाई नहीं है बल्कि यह अपने में से अलग -अलग क्षेत्रों या पक्षों के लिए प्रतिनिधि इकाईयां उत्त्पन्न करता है यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं के सर्वमान्य सामाजिक समाधान की तरफ सोच नहीं जाता क्योंकि पुरानी प्रचलित एथनिक परम्पराएं या आधुनिक समय के नवाचार अपने आप में पूरे समाज का प्रतिनिधित्व करने की बजाय एक समुदाय विशेष का प्रतिनिधित्व करते हैं हालांकि उन्हें पूरे समाज के संदर्भ में क्रियान्वित करने की तरफ बढ़ जा सकता है और ऐसा करते समय आवश्यक जरूरी बदलाव भी किए जा सकते हैं परन्तु सामाजिक जीवन का खण्डात्मक विभाजन ऐसा होने नहीं देता I लिहाज़ा यूनिवर्सल सामाजिक समाधान की बात हवा में ही तैरती रहती है क्योंकि उसे टेक ऑफ के लिए जगह नहीं मिलती I 
इस साल के विश्व पर्यावरण दिवस की थीम है ‘ प्रकृति के लिए समय’ I यह थीम एक तरफ तो पर्यावरण के प्रति हमारी कमजोर होती संवेदनशीलता को बयां कर रही है तो दूसरी तरफ फिर से पर्यावरण संवेदी होने का आह्वान भी ! परन्तु बड़ा सवाल यह है कि नव उदारवाद के इस दौर में जलवायु सशक्तिकरण का समावेशी रास्ता किस प्रकार खोजा जाय ! पिछले पचास साल में जलवायु परिवर्तन की बहस ने हमारे अकादमिक और राजनीतिक जगत में तो उत्तरोत्तर अपना स्थान मजबूत किया है लेकिन सामुदायिक जीवन में यह बहस पर्यावरणीय जिम्मेदारी का बोध पैदा करने में अपेक्षित रूप से सफल नहीं हो पाई, जिसके कई सारे कारण हो सकते हैं परन्तु एक प्रक्रिया के तौर पर देखें तो यह माना जा सकता है कि इन पचास सालों में हमारा जोर मुख्यतः राजनैतिक , तकनीकी और प्रशासनिक समाधान पर ही केंद्रित रहा है I पर्यावरण संरक्षण के सर्वोच्च वैश्विक निकाय के रूप में सयुंक्त राष्ट्र संघ की सारी कवायद मोटे तौर पर राजनैतिक दायरों में ही कसमसाती रही है I हालांकि संयुक्त राष्ट्र संघ दुनियाभर में सामुदायिक भागीदारी की न केवल वकालत करता है अपितु वह संरक्षणात्मक गतिविधियों से समुदाय को जोड़ता भी है लेकिन इस सबके प्रस्तुतिकरण व हकीकत के बीच का फासला भी एक कड़वी सच्चाई है I जिस प्रकार धूमकेतु का अस्तित्व इस बात पर निर्भर करता है कि वह सम्बन्धित ग्रह की परिक्रमा में कितना तालमेल बनाए रखता है संयुक्त राष्ट्र संघ भी कमोबेश उसी ढंग से वैश्विक राजनैतिक व्यवस्थाओं के इर्द -गिर्द अपना संतुलन स्थापित कर खुद को चलायमान रखने का यत्न करता आ रहा है I वैश्विक नेताओं के बौनेपन व जलवायु संकट के विस्तार के दुष्चक्र में इस वैश्विक संस्था की चुनौतियां और बड़ी होती जा रही है खासकर पर्यावरण संवेदशीलता वृद्धि के संदर्भ में I बाजार के घोड़े पर सवार राजनैतिक व्यवस्थाएं जीडीपी से ऑक्सीजन लेती हैं लिहाजा ऑक्सीजन वाला पेड़ उनके लिए वैसा ही भूत है जैसा कि ट्रम्प महोदय के लिए जलवायु परिवर्तन का भूत I 

Illustration: Shyam Sundar Jyani

विश्व पर्यावरण दिवस को “पीपल्स डे” भी कहा जाता है क्योंकि यह एक तरह से समुदाय को पर्यावरण संवेदी बनाने की वैश्विक मुहिम है इस दृष्टि से देखा जाय तो पर्यावरणीय संवेदशीलता पर बात करने का यह मुफ़ीद मौका है लेकिन पर्यावरणीय संवेदनशीलता को राजनैतिक-प्रशासनिक -आर्थिक कैद से मुक्त करके ही इस बात को आगे बढाया जा सकता है I यदि हम भारत के संदर्भ में ही बात करें तो शिक्षा व साक्षरता वृद्धि के तमाम दावों के बावजूद यह विरोधाभास विचारणीय है कि स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयी शिक्षा तक कहीं भी विद्यार्थी को यह तक नहीं सिखाया जाता कि ठीक तरह से पौधा कैसे लगाते हैं , ऐसे में केवल किताबों को रट कर परीक्षा दे देने से किसी मनुष्य का हरित समाजीकरण किस प्रकार संभव है ! और बिना हरित समाजीकरण के पर्यावरण संवेदना कैसे विकसित होगी ? शिक्षा की भांति पर्यावरणीय विमर्श का धार्मिक पहलू भी पाखंडी है क्योंकि आज का धर्म बाजार के हाथ का खिलौना है जो पाखंड के सहारे ही अपना साम्राज्य बचाए हुए है I 
दूसरी ओर आज भी दुनियाभर में ऐसे ‘एथनिक समुदाय’ हैं जो जलवायु सशक्त हैं क्योंकि पर्यावरणीय संवेदनशीलता उनकी परम्परा का हिस्सा है इस कारण उनके प्राकृतिक परिवेश में पर्यावरणीय लोचशीलता बरकरार है जबकि शेष दुनिया के पर्यावरणीय विमर्श में न तो परम्परा रूपी धागा है और न ही पर्यावरण संवेदना , लोचशीलता व जलवायु सशक्तिकरण रूपी मोती है बस है तो केवल काल्पनिक धागा और काल्पनिक मोती अब इनसे असली माला भला कैसे बुनी जा सकती है I विडंबना यह है कि बाज़ारवाद ने इन एथनिक समुदायों के पावों तले की धरती को भी गर्म करना शुरू कर दिया है , बदलाव की तेज आंधी में उनके पैर उखड़ें उससे पूर्व यह जरूरी है कि ऐसी एथनिक परम्पराओं को हमारे शिक्षण संस्थानों , राजनैतिक विमर्श व मीडिया रिपोर्ट्स का सतत हिस्सा बनाया जाय I दुनिया भर में पर्यावरण संरक्षण हेतु जमीनी स्तर पर कार्यरत अन-प्रिविलेज्ड लोगों को सेलिब्रिटी का दर्ज़ा मिले, पहचान मिले, यह मीडिया और शेष समाज की जिम्मेदारी होनी चाहिए क्योंकि भले ही सेलिब्रिटी कल्चर जन विमर्श की आवश्यक बुराई ही सही मगर यह समाज में ट्रेंड सैटिंग में दखल रखती है I हैड, हैंड व हार्ट की पर्यावरण संरक्षण में एक साथ भागीदारी से ही हरित भावों का आंतरीकरण मुमकिन है I इस हेतु जमीनी स्तर पर क्रियान्वित व्यक्तिगत नवाचारों को संस्थागत स्वरूप देना लाज़िमी होता जा रहा है I पश्चिमी राजस्थान के रेगिस्तान में पारिवारिक वानिकी की अवधारणा के तहत प्रत्येक घर को अपने हिस्से की हरियाली विकसित करने हेतु प्रोत्साहित कर पारिवारिक जंगल के विचार को आगे बढाया जा रहा है I शिक्षण संस्थानों में संस्थागत फल वन विकसित कर पर्यावरण शिक्षा के प्रयोगात्मक पहलू को सीखने की प्रक्रिया से जोड़ा जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप वन क्षेत्र में वृद्धि तो हुई ही है साथ ही रीति -रिवाजों व तीज त्योंहारों को पेड़ और पर्यावरण के साथ जोड़कर मनाने का सिलसिला भी शुरू हो गया है I यह सब सामुदायिक जीवन में संरचनात्मक स्तर पर बदलाव को गति देने के सामाजिक हथियार हैं I वक्त का तकाज़ा है कि कागज़ी मठाधीशों के स्थान पर इस प्रकार के हरित नवाचारों को संस्थागत प्रयासों का हिस्सा बनाने से ही बात बनेगी क्योंकि पर्यावरण चेतना का जन-विमर्श ही जलवायु सशक्तिकरण का रास्ता दिखायेगा I 
                                                         


Shyam Sundar Jyani is an Associate Professor in the Department of Sociology, Dungar Government College, Bikaner. He has been working in the field of environment conservation and ecological threats in western Rajasthan for a decade. He has popularized the ‘family forestry’ concept in rural hinterlands.

By Jitu

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