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कोविड -19 संकट के बीच तालाबंदी के इस दौर में भविष्य की कल्पना करना आसान नहीं है। गति और संचलन की आदी इस  दुनिया में हम सभी को अपने काम को रोकने और थम जाने के लिए कहा गया। विशेषाधिकार प्राप्त लोग अपने घरेलू स्थानों पर वापस जा सकते हैं और शायद सोशल मीडिया पर अपने दैनिक जीवन की साधारण सी चीज़ो को रिकॉर्ड भी कर सकते हैं, लेकिन ऐसे लोग जिनके पास ऐसा कोई विकल्प नहीं है, वे स्वयं को आजीविका के अभाव में हैरान, परेशान और भूखे पाते हैं।[i]

समाजशास्त्री राइट मिल्स ने अपनी क्लासिक पुस्तक द सोशियोलॉजिकल इमेजिनेशन (1959)[ii] में लिखा है कि हमारे जीवन के सभी अवसर हमारी आत्मकथाओं और इतिहास के चौराहों के अनुसार ढल जाते  हैं। वर्तमान परिस्थितियों में इस बात को समझने में बहुत ज्यादा प्रयास की जरूरत नहीं पड़ती कि व्यक्तिगत परेशानी एक सार्वजनिक मुद्दा है। फिर भी ‘सामान्य’ समय में, समाजशास्त्रीय कल्पना का अभ्यास करना इतना आसान नहीं है। हमारी आत्मकथाएँ हमारी एकल कहानियाँ  प्रतीत होती हैं। हम जल्दी ही सीख जाते हैं कि हमारी सफलताओं का दायित्व हम पर ही होता है और इसलिए हम में से बहुत से लोग मानते हैं कि विफलता का दोष भी व्यक्तिमात्र पर निर्भर करता है।

समाजशास्त्र अन्य सुझाव दे सकता है। समाजशास्त्र के भीतर अलग -अलग विचारों के विभिन्न स्कूल हैं, जिनमें  से अधिकांश इस बात से सहमत होंगे कि सामाजिक जीवन जितना एजेंसी के बारे में है उतना ही किसी अवरोध के भी। हालाँकि, समकालीन समय में प्रतिबंध का विचार हमारी चेतना और संवेदनाओं दोनों के विरुद्ध है । हमारी स्वतंत्रता इतनी ही स्पष्ट प्रतीत होती है। कई अन्य लोगों के लिए- स्वतंत्रता मायावी (दुर्ग्राह्य) है, जिसकी उन्हें आकांक्षा भी नहीं है। इसके विभेदकारी अभिगमन के अलावा, स्वतंत्रता के विचार और सामग्री को विभिन्न समाजों के भीतर और बाहर विविध रूप से समझा जाता है।

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समाजशास्त्र इन सामाजिक अंतःक्रियाओं के विभिन्न प्रतिमानों और विश्वासों का अध्ययन है। नज़दीक से देखने पर, यह अवलोकन योग्य, सांसारिक, रोजमर्रा की कार्यप्रणाली का अध्ययन मालूम पड़ता है, जो मानव जीवन का प्रमुख हिस्सा है। ज्यादातर समय इन चीज़ों को हम सामान्य मान लेते है जब हम अपनी नियमित गतिविधियों में सलग्न होते हैं। अधिकांशतः, हम समाज के ’छिपे हुए ढाँचों’ के बारे में बमुश्किल जानते हैं।[iii]  समाजशास्त्रीय चेतना हमें उनके अस्तित्व के सम्बन्ध में सचेत करती है और हमें यूँ ही मान ली गई वास्तविकता की कड़ियों को सुलझाने में मदद करती है। यह हमें बिना किसी परेशानी के पूरी पारदर्शिता के साथ सारी प्रक्रियाओं को समझने में मदद करती है। घरों के मुख (या अग्रभाग) की सामाजिक संरचना से तुलना करते हुए पीटर बर्जर ने इनविटेशन टु सोशियोलॉजी में यही लिखा है कि ‘घरों को सामने से देखने पर हम ये नहीं बता सकते हैं कि उनके पीछे कौन से सामाजिक रहस्य’ छुपे हैं। अक्सर एक आपदा अचानक से उन ‘सामाजिक रहस्यों’ पर से पर्दा उठा देती है।[iv]

जिन लोगों को युद्ध-कालीन बमबारी का अनुभव हुआ है … वे रात के दौरान बम से उड़ाये गए घर की चौंकाने वाली सुबह के दृश्य को याद कर सकते हैं, बड़े करीने से आधे में कटे हुये घर, जिसका सामने का हिस्सा हट जाने पर बड़ी ही निर्दयता से आतंरिक भाग दिन के उजाले में सबके सामने आ जाता है…, लेकिन ज्यादातर शहर जिनमें रहा जा सकता है, में कौतुहलपूर्ण अतिक्रमण से बेधा जाना आवश्यक है

इसी तरह, ऐतिहासिक परिस्थितियां हैं जिनमें कई बार सामाजिक पहलु बड़ी उग्रता से टूट जाते हैं और तब विचारशून्य लोग भी उस वास्तविकता को देखने को मजबूर हो जाते हैं, जो अब तब उन पहलुओं के पीछे छुपी हुयी थी (पीटर बर्गेर, 1963)। महामारी एक ऐसी ऐतिहासिक स्थिति है।

हमारी प्रतिदिन की सामान्य दिनचर्या न तो दिनचर्या बची है और न ही ये सामान्य है।  मामूली सा कार्य भी अत्यंत कठिन प्रतीत होता है। अब सब्जियां खरीदना एक दुष्कर कार्य है। कोविड – 19 के इस संकट ने तमाम वस्तुओं  की अबाध पूर्ति को बुरी तरह प्रभावित कर दिया है, वरना ज्यादातर लोगों को इन छुपी हुयी कड़ियों के बारे में पता ही नहीं था जिनके माध्यम से उन तक ये सारी चीज़ें उनके घर तक पहुँचती थीं।

अब हम यूँ ही किराने की दुकान तक नहीं जा सकते या फिर अपने बाल कटवाने के लिए किसी नाई की दुकान पर या अपनी कक्षा में नहीं घूम  सकते हैं  या फिर रेस्तरां में भी नहीं जा सकते हैं। हमें नहीं पता कि ये सब फिर से कब संभव होगा। कब सब सामान्य होगा। नौकरियां, भविष्य, योजनाएँ सभी एक पड़ाव पर आकर ठहर गयी हैं और स्थिति दिन पर दिन भयानक हो रही हैं।

हमारे जीवन को बाधित करने के अलावा, कोविड -19 ने ‘सामाजिक संरचनाओं’ के छद्म स्वरूप को तोड़ दिया है। एक झटके में हमने जाना कि ‘विसामान्यीकरण’ का सामाजिक मानवविज्ञान की दृष्टि में क्या मतलब है। इसका मतलब होता है अपरिचित में परिचित का प्रतिपादन। इससे पहले कि हम भारत में स्थिति की गंभीरता का एहसास करते,  हमने पश्चिम के देशों की दुकानों के अविश्वसनीय दृश्य देखे, जिनमें सामान्य सी वस्तु जैसे की टॉयलेट पेपर तक ख़त्म हो जा रहे थे। घबराहट में लोग सब कुछ जरुरत से ज्यादा खरीदने लगे थे। ऑस्ट्रेलिया में तो एक स्टोर पर पुलिस को बुलाने की नौबत आ गयी जब ये सूचना मिली कि खरीददारों ने कैसे टॉयलेट पेपर के पीछे झगड़े में चाकू तक निकाल लिए।[v] समीक्षकों का कहना है कि पश्चिमी देशों के समाजों ने कभी अभाव और दुर्लभता को महसूस ही नहीं किया था। इस तरह की संभावना की अपेक्षा ने उन्हें ‘हमारे जैसा ही व्यवहार’ करने को मज़बूर दिया और व्यक्तिगत तौर पर  लोगों को लाचार बना दिया।

वहीं स्वदेश में, हम देख सकते थे कि कैसे गरीबों और हाशिए पर पड़े लोगों की चिंताओं को सहजता से प्रमुख (मुुख्य) वर्ग की चेतना से बाहर कर  दिया गया। लॉकडाउन ने विभिन्न सामाजिक वर्गों को बहुत अलग-अलग तरीकों से प्रभावित किया। हमारे प्रवासी मज़दूरों की दुखद कहानियाँ, जो अपने घरों की ओर लौटने या उससे पहले ही दम तोड़ने की घटनाओं से भरी हुयी है, ने  दोषपूर्ण सामाजिक संरचनाओं को सबके सामने ला दिया है। वहीं दुनिया भर में बढ़ती घरेलू हिंसा की खबरें चारों तरफ हैं इसलिए ये जरूरी नहीं कि घर सुरक्षित हैं।[vi]

वर्तमान महामारी के बीच, सामाजिक चेतना पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक है। अब जब सामाजिक संरचना के छुपे पहलु सबके सामने हैं, तो हम ये समझ सकते हैं कि महामारी और तालाबंदी दुनिया के सभी हिस्सों को एक तरह से प्रभावित नहीं करेगी। अपने आप को दूसरों से अलग रखना, घर पर ही बच्चों को पढ़ाना, जरुरी वस्तुओं को इकठ्ठा करना, स्वास्थ सुविधाओं तक पहुंच एवं इस संकट के बाद अपनी ज़िन्दगी को आर्थिक (और मनोवैज्ञानिक) तौर पर फिर से सुचारु बनाना, ये सब बातें दरसअल वर्ग, लिंग, प्रजाति, उम्र और भौगोलिक परिथितियों पर निर्भर करती है।[vii] इस संकट के क्षण में, किस तरह आपस में जुडी हुई अलग – अलग वास्तविकताओं की कार्यप्रणाली को समाजशास्त्रीय कल्पना ठीक से समझने में मदद करेगी, ये एक बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है।

Translation courtesy: Dinesh Rajak, Centre for the Study of Social Systems (CSSS), Jawaharlal Nehru University (JNU) and Vivek Vasuniya, Centre for the Study of Regional Development (CSRD), Jawaharlal Nehru University (JNU).

This piece has previously been published in the Doing Sociology Blog in English. 

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संदर्भ

[i] https://www.thehindu.com/news/international/lockdown-in-india-has-impacted-40-million-internal-migrants-world-bank/article31411618.ece

[ii] राइट मिल्स। 1959. द सोशियोलॉजिकल इमेजिनेशन। न्यूयोर्क। ऑक्सफ़ोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

[iii] इरविन गोफमान। 1956. द प्रेजेंटेशन ऑफ़ सेल्फ इन एवरीडे लाइफ। यूनिवर्सिटी ऑफ़ एडिनबर्ग

[iv] पीटर बर्गेर। 1963. इनविटेशन टू सोशियोलॉजी: ए ह्युमनिस्टिक पर्सपेक्टिव।

[v] https://metro.co.uk/2020/03/04/panic-buyer-pulls-knife-another-shopper-row-toilet-roll-12344873/

[vi] https://www.nytimes.com/2020/04/06/world/coronavirus-domestic-violence.html

[vii] https://www.wilpf.org/covid-19-what-has-covid-19-taught-us-about-neoliberalism/

By Jitu

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