Doing Sociology is bringing out a Hindi translation of one of the seminal feminist texts produced in India – Sultana’s Dream written by Rokeya Sakhawat Hossian. The translation has been done by Dr. Tribhu Nath Dubey. The story will be published in three parts.
In the first post, we share a short video where the text is introduced by Dr. Dubey. He talks about the text which was not only path-breaking for the times that it was written in but it still holds significance today. The post also shares a video discussion on the text by Prof. Maitrayee Chaudhuri.
In the following video, he introduces the text.
The following video is a discussion on the text by Prof. Maitrayee Chaudhuri on Rokeya Sahkawat Hossain’s Sultana’s Dream for the Consortium of Educational Communication.
PART I
परिचयात्मक टिप्पणी: रोक्या सखावत हुसैन (1880-1932) या बेग़म रोक्या के नाम से मशहूर लेखिका और शिक्षाविद की यह महत्त्वपूर्ण कृति ‘सुल्तानाज़ ड्रीम’ साहित्यिक दृष्टि से ही नहीं ऐतिहासिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि से भी एक गंभीर और मानीखे़ज दस्तावेज है। कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से विलक्षण और क्रांतिकारी यह कहानी सर्वप्रथम ‘इंडियन लेडीज़ मैगज़ीन’, मद्रास से 1905 में अंग्रेजी में प्रकाशित हुई और विभिन्न अर्थों में वे सारे प्रश्न आज भी हमारे सामने उतनी ही मजबूती के साथ रखती है। अपने कथ्य को रूपायित करने के लिए वैज्ञानिक फंतासी के माध्यम से यह कथा ‘पाप और पीड़ा से मुक्त नारीदेश’ की एक ऐसी परिकल्पना करती है जहाँ सद्गुणों का साम्राज्य है, जिसमें शिक्षा और विज्ञान के सहारे एक सुन्दर, भयमुक्त और समस्यारहित समाज दृष्टिगत होता है। कृति के कालखंड, लेखिका की सामाजिक पृष्ठभूमि और सरोकार; समाज में स्त्रियों की भागीदारी, उनकी दशा और उनमें परिवर्तन के प्रभावी स्रोतों को समझने के साथ-साथ अब तक के विकास का क्या हासिल है और हमारे समाज की स्त्रियों के हिस्से क्या आया कि दृष्टि से यह कहानी एक पुनर्पाठ की मांग करती है। संभव है कि ‘ख़ाब -ए-सुल्ताना’ के रूप में यह अनुवाद हिंदीभाषियों तक इसे पहुंचाने और इस पुनर्पाठ में सहायता करे।
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एक शाम की बात है, मैं अपने शयन-कक्ष में आराम कुर्सी पर लेटी हुई थी और तसल्लीपूर्वक हिन्दुस्तानी स्त्रियों की दशा के बारे में सोच रही थी । शर्तिया तौर पर यह तो नहीं कह सकती कि मेरी आँख लग गई थी या नहीं पर जहाँ तक मुझे याद है, मेरी आँखें खुली थीं और मैं जगी हुई थी। वो चांदनी-सी रात थी और हीरों सरीखे हजारों चमकते तारों से लबरेज आसमां मुझे साफ़ दिख रहा था।
और एक महिला अचानक मेरे सामने प्रकट हुई; वो कैसे आई, मुझे पता नहीं। मैंने यही समझा कि वो मेरी दोस्त सिस्टर सारा है।
‘गुड मोर्निंग’, सिस्टर सारा ने कहा। मैं मन ही मन हंसी क्योंकि मुझे मालूम था कि ये सुबह नहीं बल्कि एक सितारों भरी रात थी। फिर भी, मैंने उन्हें जवाब दिया, ‘कैसी हो तुम?’
‘शुक्रिया! मैं ठीक हूँ। क्या तुम बाहर चलोगी और हमारे बगीचे को एक बार देखना पसंद करोगी?’
खुली हुई खिड़की से मैंने फिर चाँद की तरफ देखा, और मुझे लगा कि इस समय बाहर जाने में कोई बुराई नहीं है। इस समय पुरुष कारिंदे बाहर गहरी नींद में सोये पड़े थे और मुझे सिस्टर सारा के साथ टहलने का सुख भी मिल जाता।
जब मैं दार्जिलिंग में रहती थी, मैं सिस्टर सारा के साथ ही घूमने जाया करती थी। कई बार हम दोनों ने हाथों में हाथ डाले, बोटैनिकल गार्डन में खुशदिली की बातें की हैं। मुझे लगा की सिस्टर सारा ने वैसे ही किसी बगीचे में घूमने चलने के लिए बुलाया है, तो झट से उनके साथ बाहर जाने की हामी भर दी।
घूमते वक्त यह महसूस करते मैं चकित थी कि ये तो एक बेहद सुन्दर सुबह थी। पूरा शहर जग चुका था और शहर की गलियां लोगों की भीड़ से रेलमपेल थीं। मैं शर्म से लाल हुई जा रही थी ये सोचकर कि दिन के खुले में मैं घूम रही हूँ, लेकिन वहां तो कोई भी पुरुष दिखाई ही नहीं दे रहा था!
पास से गुजरनेवालियों में से कुछ ने मेरा मज़ाक भी उड़ाया। यद्यपि उनकी भाषा मेरे समझ से परे थी फिर भी मुझे यकीनी तौर पे यही लगा कि वे मेरी खिल्ली उड़ा रहीं हैं। मैंने अपनी सहेली से पूछा, ‘वे क्या कह रही हैं?’
‘ये जनानियाँ यह कह रहीं हैं कि तुम बड़ी पुरुषों जैसा दिखती हो।’
‘पुरुष जैसा?’ मैंने पूछा, ‘क्या मतलब है उनका?’
‘उन्हें लगता है कि तुम पुरुषों की तरह शर्मीले और डरपोक हो।’
‘पुरुषों की तरह शर्मीले और डरपोक?’ ये तो सचमुच ही एक घोर मज़ाक था। मैं बहुत ही घबरा गई, जब मुझे अहसास हुआ कि मेरी साथिन सिस्टर सारा नहीं, कोई अनजान ही महिला थी। ओह! मैंने इस औरत को सिस्टर सारा समझने की कितनी बड़ी भूल की है।
चूँकि हम हाथ पकड़ कर चल रहे थे, उसे मेरी उँगलियों में हो रही कंपकंपाहट का अहसास हो गया।
‘क्या बात है, दोस्त? उसने बड़े प्रेम से पूछा। ‘मुझे थोड़ी झेंप-सी आ रही है’, मैंने लगभग शर्माते हुए कहा, ‘पर्दानशीं होने के कारण मुझे घूँघट किए बिना घूमने की आदत नहीं है।’
‘तुमको डरने की कोई ज़रूरत नहीं है, तुझे यहाँ कोई पुरुष दिखाई भी नहीं देगा। यह पाप और पीड़ा से मुक्त नारीदेश है। यहाँ सद्गुणों का साम्राज्य है।’
इसके बाद मैं उस जगह के मनोरम दृश्यों का सुख लेने लगी। यह सचमुच बहुत ही विशद था। हरी घास के एक टुकड़े को देख कर मझे भ्रम हुआ कि यह कोई मखमली कुशन तो नहीं! ऐसा प्रतीत हुआ जैसे मैं एक नरम गलीचे पर घूम रही हूँ। नीचे देखने पर यह जान पड़ा कि रास्ते तो शैवालों और फूलों से ढके पड़े थे।
‘ये कितना अच्छा है!’ मैंने कहा।
‘पसंद आया तुम्हें?’ सिस्टर सारा ने प्रश्न किया। (मैंने उसे सिस्टर सारा ही कहना जारी रखा और वो भी मुझे मेरे नाम से ही बुलाती रही।)
‘हाँ, बहुत; लेकिन नरम, सुन्दर फूलों पर चलना मुझे ठीक नहीं लगता।’
‘कोई बात नहीं, प्यारी सुल्ताना; उन पर तुम्हारे चलने से ये ख़राब नहीं होंगे; ये रास्ते के फूल हैं।’
‘पूरी जगह एक बगीचे की तरह दिख रही है’, मैं प्रसंशा करने से खुद को रोक नहीं पाई। ‘तुमने सभी पौधों को बड़े करीने से दक्षता पूर्वक लगाया है।’
‘तुम्हारा कलकत्ता इससे भी सुन्दर बगीचा बन सकता है यदि आपके लोग इसे बनाना चाहें।’
‘वे वानिकी पर इतना ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझेंगे क्योंकि उन्हें बहुत से दूसरे काम होते हैं।’
‘इससे बढ़िया बहाना और क्या हो सकता है’ उसने मुस्कुराते हुए कहा।
मैं यह जानने के लिए उतावली हो रही थी कि सारे पुरुष कहाँ हैं? टहलकदमी करते हुए मुझे सैकड़ों औरतें मिलीं लेकिन एक भी पुरुष दिखाई नहीं दिया।
‘आदमी लोग कहाँ हैं?’ मैंने पूछा।
‘अपनी सही जगह पर, जहाँ उन्हें होना चाहिए।’
‘ “उनकी सही जगह” से तुम्हारा मतलब क्या है? कृपया मुझे समझाओ।’
‘हूँ..अब मुझे समझ आया, मुझसे क्या भूल हो रही है, तुम्हें यहाँ के तौर-तरीकों के बारे में मालूम नहीं है। होगा भी कैसे? तुम पहले कभी यहाँ आईं भी तो नहीं। हम पुरुषों को घरों के भीतर रखते हैं।’
‘ठीक वैसे ही जैसे हम लोग जनाने में रखे जाते हैं?’
‘बिलकुल।’
‘क्या मज़ाक है!’ मुझे बहुत हंसी छूट रही थी। सिस्टर सारा भी हंस पड़ी थी।
‘लेकिन प्रिय सुल्ताना, किसी तरह का नुकसान न पहुँचाने वाली औरतों को घर के भीतर बंद कर देना और पुरुषों को खुला छोड़ देना कितना ग़ैरवाज़िब है।’
‘क्यों? हम औरतों का जनाने से बाहर रहना या जाना सुरक्षित नहीं है, क्योंकि हम नैसर्गिक रूप से कमजोर हैं।’
‘हाँ, ये तब तक महफूज नहीं है जब पुरुष गलियों में पाए जाएँ और न ही तब जब कोई जंगली जानवर बाज़ार में घुस आए।’
‘बिल्कुल नहीं।’
‘ज़रा सोंचो, कुछ पागल अगर अस्पताल से बाहर आ जाएँ और पुरुषों, घोड़ों और अन्य जीवों को हर तरह से परेशान करने लगें; तब आपके देशवासी क्या करेंगे?’
‘उन्हें पकड़ेंगे और वापस अस्पताल भेजेंगे।’
‘धन्यवाद! और आप इसे समझदारी भरा नहीं मानेंगी न कि स्वस्थ दिमाग वाले लोगों को अस्पतालों में रखा जाए एवं बददिमागों को बाहर खुला छोड़ दिया जाए?’
‘जी, बिल्कुल नहीं!’ मैंने ज़ोर से हँसते हुआ कहा।
‘वस्तुतः आपके देश में ऐसा ही किया जाता है! पुरुष, अनेकों कारगुजारिया करते हैं या करने की क्षमता रखते हैं, वे खुले घूमते हैं और जो निर्दोष औरतें हैं उन्हें जनानखाने में बंद कर दिया जाता है! आप उन जाहिल पुरुषों पर घर के बाहर कैसे भरोसा रख सकती हैं?’
‘हमें अपने सामाजिक क्रिया-कलापों के प्रबंधन में हमारी न तो कोई भूमिका है न ही हमारी कोई सुनता है। भारत में पुरुष ही कर्ता-धर्ता और मालिक होते हैं, उन्हीं के पास सारी शक्तियां और सुविधाएँ हैं और वे अपनी महिलाओं को जनाने में बंद रखते हैं।’
‘आप खुद को इस तरह बंद क्यों होने देती हैं?’
‘तो और क्या करें! वे औरतों से ज्यादा ताक़तवर हैं।’
‘शेर तो आदमियों से भी ताक़तवर होता है, लेकिन इसके कारण वो मनुष्य जाति पर शासन तो नहीं करता। आप औरतों ने आपके स्वयं के प्रति जो कर्त्तव्य हैं, उसको नज़रन्दाज किया है और अपने हितों की अनदेखी कर के अपने नैसर्गिक अधिकार खो दिए हैं।’
‘लेकिन मेरी प्यारी सिस्टर सारा, यदि हम ही सारा कुछ खुद कर लेंगी तो फिर पुरुष क्या करेंगे?’
‘माफ़ कीजिये! उन्हें कुछ नहीं करना चाहिए; वे किसी काम के नहीं हैं। उन्हें बस पकड़ो और जनाने में डाल दो।’
‘लेकिन ये आसान हो सकता है क्या कि उन्हें वश में कर के चारदीवारी के भीतर रखा जा सके?’ मैंने कहा। ‘और यदि यह किसी प्रकार संभव भी हुआ तो क्या उनके वो सारे व्यापार और राजनीति के काम भी क्या उनके साथ जनाने में जायेंगे?’
सिस्टर सारा ने कोई उत्तर नहीं दिया। बस एक मीठी-सी हंसी उसके चेहरे पर थी। शायद उसे किसी कूप-मंडूक से बहस करना खास उपयोगी नहीं लगा।
[1] अंग्रेजी में लिखी मूल रचना यहाँ पढ़ी जा सकती है: http://digital.library.upenn.edu/women/sultana/dream/dream.html
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Tribhu Nath Dubey teaches Sociology in Rajasthan. Employed with the Commissionarate of College Education Rajasthan as an Associate Professor, he is currently posted in the Department of Sociology, Government Arts Girls College, Kota. He has been the Co-Editor of the Rajasthan Journal of Sociology. Presently, he is also working as the Secretary of the Rajasthan Sociological Association. As an avid researcher, he has worked in the area of Sociology of Development, Diaspora Studies, and Sociology of Literature.
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