मीडिया हमारी रोजमर्रा की जिंदगी में हर जगह मौजूद है। हमारे निजी या सार्वजनिक अनुभवों का कोई भी पहलू अछूता नहीं है। व्यक्तिगत तौर पर, मीडिया पर हमारी निर्भरता बहुत ज्यादा है। जिसने भी कभी अपना स्मार्टफोन खोया है, उसे पता होगा कि गहरी बेबसी क्या चीज़ होती है। उसने सिर्फ अपना फ़ोन ही नहीं खोया है। यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण वस्तु को खो देने की तरह है जो हमारी ज़िन्दगी को बाँधे रखती है मानो जीवन की पतवार ही खो गई हो: काम और आराम तक पहुंच; दोस्तों और परिवार से जुड़ना; बैंकिंग और टिकटिंग; स्वास्थ्य और धन की निगरानी रखने की समस्या उत्पन्न हो जाती है। सब कुछ जैसे थम सा जाता है। दुनिया के सारे दरवाजे ही बंद हो जाते है।
यह हमारे शहरी मध्यवर्गीय जीवन के रोज़ के अनुभव का हिस्सा है। व्यक्तिगत परेशानी के इस गहरे कुँए से निकलने के एकमात्र तरीके के रूप में एक कॉल करने की बेकरारी होती है, जिसे हम अपने फ़ोन की समस्या को ठीक करने से पहले उसे ब्लॉक कराने के लिए करते हैं। कई बार, हम पाते हैं कि यह संभव नहीं है। ये ऐसी समस्या है जिसे आसानी से ठीक नहीं किया जा सकता। बाजार में उपलब्ध नए मॉडल उस समाधान को महत्वहीन कर देते हैं। और हम वापस अपनी “दुनिया” में जाने के लिए एक विकल्प खोजने को मजबूर हो जाते हैं। इस छोटे से उपकरण का खो जाना हमारी रोजमर्रा के कामकाज को बुरी तरह प्रभावित करता है। यह एक ऐसी कहानी है जो इस साझी दुनिया में कई लोगों के साथ प्रतिध्वनित होगी। बाकी के लिए, इन सब चीज़ो तक ‘पहुंच’ पाना भी संघर्ष से भरा हो सकता है जो अधिक विशेषाधिकार प्राप्त लोगों के लिए समझना मुश्किल होगा[i]।
बाजार की दूरस्थ और जटिल प्रक्रियाएं, राज्य और सामाजिक विषमतायें ये सब लोगो की व्यक्तिगत कहानियों पर अपना प्रभाव डालती हैं। बड़ी और अक्सर अदृश्य संरचनाएं हमें मरम्मत के बजाय एक नया गैजेट खरीदने के लिए मजबूर करती हैं[ii]। व्यक्तिगत परेशानी स्पष्ट रूप से एक सार्वजनिक मुद्दा है। यह बाधा, हालांकि, शायद ही कभी एक मजबूरी की तरह महसूस की जाती है। विज्ञापन उद्योग यह सुनिश्चित करता है कि हम यह महसूस करें कि हमारे द्वारा लिए गए निर्णय समझ-बुझ पूर्ण, विवेकसंगत और विकल्प श्रेष्ठता के कारण है।
उपयोगकर्ताओं के रूप में हम ये जानते हैं कि नए ऐप को कैसे डाउनलोड करें और एक ऐसी दुनिया बनाएं जो हमारी पसंद के अनुरूप हो। हमारे फ़ोन स्क्रीन पर आने वाले दोस्ताना सुझाव हमें उन वेबसाइटों के लिए निर्देशित करते हैं जो हमारी रुचि और पसंद से मेल खाती हैं। ये सौम्य विज्ञापनों की तरह प्रोत्साहन व्यक्तिगत संदेशों के रूप में आते है।
व्यक्तिगत स्पर्श मायने रखता है। इंडस्ट्री को यह पता है। संदेशों की एक कला है और का अपना व्यवसाय है, जो संचार उद्योग को बनाता है।
मार्केटिंग रणनीति के व्यक्तिगत होने का समय आ गया है। आज की डिजिटल मार्केटिंग रणनीति ग्राहक के अनुभव को सार्थक और मूल्यवान बनाने के ऊपर पर ही केंद्रित है। अपने ग्राहक को लाखों में एक महसूस कराने के लिए कई सरल, लागत प्रभावी और गैर-स्पैम तरीके हैं, उनमे सबसे आसान है व्यक्तिगत संदेश[iii]।
बाजार इस कहानी में इकलौता नहीं है। राज्य मीडिया, संचार और प्रचार पर अभूतपूर्व धनराशि खर्च करता है। ये तरीके भी हाल ही में जनवादी और सत्तावादी शासन के साथ उभर कर आये है। हम राज्य और बाजार को जोड़ने वाले संबंधो के बारे में बहुत कम जानते हैं। हमें यह भी पता नहीं है कि पॉपुलिज्म इतनी अच्छी तरह से कैसे काम करता है और इसमें मीडिया की क्या भूमिका है।
मीडिया से प्रभावित इस दुनिया का एक दूसरा पहलू ये भी है कि राज्यों, उनके शासकों और नागरिकों को अच्छे दिखने और प्रतीत ( सब चँगा सी ) होने की ज़रूरत है। राजनीतिक कार्यो (व्यवस्थाओं) को बड़ी ही सावधानी से प्रबंधित किया जाता है (थॉम्पसन 1995)[iv]। ब्रांड बनाये और बेचे जाते हैं। ठीक उसी समय, उद्दण्ड नागरिकों (आलोचक) को खराब छवि में दिखाया जाता है। ऐसे व्यक्तियों और संस्थानों की प्रतिष्ठा और छवियों पर कीचड़ भी उछाला जाता है। और जब कई बार ऐसे लोगो को जेल भेज दिया जाता है, तब बहुत से लोग ये सोचकर राहत महसूस करते हैं कि बुरे लोगों को सही तरीके से दंडित किया गया है। हालाँकि, कभी न थकने वाला मीडिया और इसकी सन्देश सेवा यहीं पर नहीं रूकती । ब्रेकिंग न्यूज की 24×7 उत्तेजना यह सुनिश्चित करती है कि जिन लोगों को जेल की दीवारों के पीछे डाल दिया गया है, वे हमारे दिमाग और सोच से बाहर हो जाये। इस संचार की दुनिया में हमेशा एक अगली बड़ी कहानी हमारा ध्यान आकर्षित करने को तैयार रहती है। अनाकर्षक प्रेस को प्रबंधित करने और नयी कहानियों (जो कि पुरानी खबरों / कहानियों को गायब कर सकती हो) को गढ़ने के लिए संगठन और पेशेवर विशेषज्ञताएं उपलब्ध हैं।
मीडिया तकनीक निरंतर छवि निर्माण करने और उसे औद्योगिक पैमाने पर प्रदर्शित करने में मदद करती है। इसके लिए अपार धन, बाजार की खोज और रचनात्मकता की आवश्यकता होती है। ब्रांड्स बनाने पड़ते हैं। विज्ञापन और बाज़ार की एजेंसियां इस बड़ी, जटिल और व्यवसायिक प्रणाली का हिस्सा हैं, जो ब्रांड बनाने और सपने बेचने के व्यवसाय में है।
हम सभी मीडिया का उपयोग करते हैं लेकिन इसकी संरचना और कामकाज के बारे में बहुत कम जानते हैं। हम पर्यावरण की हो रही दुर्दशा के बारे में जानते हैं, लेकिन इस बात को कि मीडिया द्वारा पर्यावरण के मुद्दों को कवर करने के तरीकों पर राज्य और बाजार द्वारा क्या दबाव डाला जाता है, बिल्कुल नहीं समझते हैं। ना ही हमें पर्यावरण कार्यकर्ताओं पर होने वाले हमलों के बारे में पता है[v]। हाल ही में सामने आयी कुछ घटनाएँ जिनमें फेसबुक जैसे सोशल मीडिया दिग्गज, या टीआरपी घोटाला, या एक अग्रणी ज्वैलरी हाउस द्वारा एक विज्ञापन की त्वरित वापसी जिसने एक या दो दिन के लिए सुर्खियों पर कब्जा कर लिया था, उस मीडिया के पीछे चल रही कहानी की झलक दिखाती है, जिसे हम लोग कम ही जानते हैं।
हम मीडिया के लगातार बदलते हुए रूपों को देखते, सुनते और उपभोग करते हैं। अधिकांश प्रिंट अखबारों के अपने ऑनलाइन संस्करण हैं, टेलीविजन चैनल की तरह। मनोरंजन और सूचना के बीच की सीमाओं के साथ उनके बीच के अंतर भी धुंधले हो जाते हैं। समकालीन समाचारों की त्वरित गति और सनसनी काफी रोमांचक है। जो कई साल पहले वाले न्यूज चैनलों की तरह बिलकुल नहीं है। हमारे बीच के बड़े लोग उन पिछले दिनों के समाचार पत्रों की सामग्री और बनावट को याद कर सकते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार, नए प्रारूप और उनके द्वारा बताई गई सामग्री के बीच का संबंध काफी असरदार है।
यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हम सारी चीज़ो को मीडिया की नज़रों से ही देखने लगे हैं। ऐसा लगता है की सिर्फ वही घटनाएं अस्तित्व में है, जिनपर ये अपना ध्यान केंद्रित करते हैं और वही महत्वपूर्ण भी नज़र आती है। यह टेढ़ी खबरें और भी जटिल हो जाती हैं, जब इन ढेर विकल्पों और एल्गोरिदम की दुनिया में, हमारे पास हमारी पसंद के हिसाब से ’समाचार’ सीधे फोन में भेज दी जाती है। हम उन्ही सुर्खियों का उपभोग करते हैं जो हमारी ज़िन्दगियों से जुड़ी होती हैं और जिन्हें हम पहले से ही विश्वास करने के लिए तैयार होते हैं।
मीडिया द्वारा संचालित लोकप्रिय शब्दों की सर्वव्यापीता उस अज्ञानता के बिल्कुल विपरीत है जिससे पता चलता है की हम मीडिया की कार्यप्रणाली के बारे में बिलकुल नहीं जानते। एक अरब से अधिक लोग अब समाचारों का उपभोग करते हैं और संगीत वीडियो देखते हैं। लेकिन फिर भी हम मीडिया उद्योग, इसके स्वामित्व और संगठनात्मक ढांचे, इसके आय के स्त्रोत, या अन्य उद्योगों के साथ इसके संबंध (राज्य और बाजार के साथ) के बारे में कुछ भी नहीं जानते है।
यह अज्ञानता एकतरफा है क्योकि तकनीक से लैस इस उद्योग को हम उपभोक्ताओं के बारे में बहुत कुछ पता है। जैसे कि कई अंग्रेजी जानने वाले शहरी भारतीय स्मार्टफोन पर समाचारों को पढ़ते हैं[vi]। ये भी कि नए युग की महिलाओं को आकर्षित करने के लिए नारीवाद का तड़का लगाना काफी होता है (चौधरी 2017)[vii]। 1990 के दशक में भारतीय मीडिया के बीच प्रचलित एक शब्द ‘ सनी साइड जर्नलिज्म ‘बहुत ही लाभदायक साबित हुआ है और ये काफी व्यावहारिक भी है। लेकिन जातिगत अत्याचार, कृषि संकट और शहरी गन्दगी पर मीडिया कवरेज नहीं है, जब तक कि यह भी उपभोग के लिए एक सनसनीखेज उत्पाद में न बदल जाए। मीडिया जानता है कि व्यक्तिगत संदेश अच्छा व्यवसाय है। बाज़ार के शोध तंत्र जानते हैं कि यह कैसे काम करता है और कौनसा संदेश किसके लिए सही काम करता है। यही कार्य राज्य भी विभिन्न तरीकों से करता है। और ये सब बड़ा धंधा है[viii]।
डेटा माइनिंग का प्रश्न भी इन्ही सब चीज़ो से जुड़ा हुआ है। वही ‘डेटा जिसे हम अपने गैजेट पर विभिन्न एप्लिकेशन का उपयोग करते हुए खुशी-खुशी साझा करते हैं। इसके दायरे और पैमाने की गहराई को हम मुश्किल से ही समझ पाते हैं। शोशाना ज़ुबॉफ़ की एक महत्वपूर्ण क़िताब ‘सर्विलांस कैपिटलिज्म ‘ की समीक्षा करते हुए, द गार्जियन लिखता हैं कि गूगल जिसका शुरुआती इरादा “सम्पूर्ण मानव ज्ञान को व्यवस्थित करने का था अब खुद ही उस ज्ञान तक सभी की पहुँच पर नियंत्रण रखने लगा है। हम खोज करते हैं और बदले में खोजे जाते हैं ”[ix]।
उपभोक्ताओं और मीडिया के ‘संदेशवाहकों’ के बीच के इस असमान ज्ञान ने मीडिया तंत्र को समझने की एक अनिवार्यता को जन्म दिया है। कुछ लोगों का तर्क है कि हर संदेश को बनाने के पीछे कोई न कोई कारण होता है, और उस कारण को समझना मीडिया साक्षरता का आधार है[x]। मीडिया के पुरे तंत्र को समझने के लिए यह संभवतः एक रास्ता है। और भी कई रास्ते हो सकते हैं।
[i] Aishwarya Reddy, 19, had asked for a laptop, even a second-hand one, to continue her college classes during the coronavirus lockdown. But her family struggled with the request. Last week, the student of Delhi’s Lady Shri Ram college (LSR) died by suicide at her home in Telangana, calling herself a “burden to her family” in a note — a wrenching example of the tragedy of thousands of families and students left financially desperate by the virus shutdown.https://www.ndtv.com/india-news/lsr-student-suicide-in-telangana-unable-to-afford-laptop-lsr-student-dies-by-suicide-at-telangana-home-2322674, accessed on 9th November 2020.
[ii] http://www.electronicstakeback.com/designed-for-the-dump/quickly-obsolete/, accessed on 9th November 2020.
[iii] https://www.slicktext.com/blog/2019/01/personalized-text-messages-complete-guide/, accessed on 5th November 2020.
[iv] Thompson, John B. (1995). The Media and Modernity: A Social Theory of the Media. Stanford University Press.
[v] https://monitor.civicus.org/updates/2019/09/10/environmental-activists-and-journalists-among-human-rights-defenders-risk-india/, accessed on 9th November 2020.
[vi] https://timesofindia.indiatimes.com/india/68-of-indian-users-consume-news-on-smartphones-report/articleshow/68565146.cms, accessed on 7th November 2020.
[vii] Chaudhuri, Maitrayee. 2017. Refashioning India: Gender, Media and a Transformed Public Discourse. Hyderabad: Orient Blackswan.
[viii] https://www.logicserve.com/blog/survey-social-media-apps-are-an-integral-part-of-the-indian-marketers-everyday-life/, accessed on 5th November 2020.
[ix] https://www.theguardian.com/books/2019/feb/02/age-of-surveillance-capitalism-shoshana-zuboff-review, accessed on 10th November 2020.
[x] https://www.commonsensemedia.org/news-and-media-literacy/what-is-media-literacy-and-why-is-it-important, accessed on 10th November 2020.
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Translated by Dinesh Rajak, PhD research scholar at Centre for the Study of Social Systems (CSSS) and Vivek Vasuniya, PhD research scholar at Centre for the Study of Regional Development (CSRD), Jawaharlal Nehru University (JNU), New Delhi.