कोरोना और आज़ादी | Rituparna
इस दौर में आज़ादी की एक अलग चाह है जब हम सब कैद हैं अपने घरों में पता नहीं ये आज़ादी कब आयेगी ? कल तक समय का सही हिसाब था और आज लगता है की मैं हूँ कहाँ । समय से मैं पूछती हूँ “तू किधर जा रहा है? थोड़ा तो रुक जा, थोड़ा तो ठहर जा इंसान कब तक भागेगा तेरे पीछे ?” लगता है कि पंछी बन कर कहीं उड़ जाऊँ | खुले आसमान में उड़ते परिंदे भी आज छटपटाते हैं आज़ादी के लिए शायद घर का ठिकाना ही नहीं — आज इधर तो कल उधर । कोरोना कोरोना करते करते सपने कहीं खो गए हैं समाधान आने तक कहीं और ज़्यादा जाने ना चली जाएँ । मैं ठहरी हुई हूँ एक ऐसे मोड़ पर…