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नदियों के किनारे यात्रा करना अक्सर एक काव्यात्मक आकर्षण पैदा करता है। घुमावदार नदी , इसकी साँप की तरह टेढ़ी मेढ़ी चाल बहुत सी कहानियों का अभिन्न अंग हैं –  जो शहर, नगर और कस्बों के परिदृश्य से बहते हुए अनेकों किस्से बदलती रहती है। हर कहानी नदी की अनोखी भावना को उजागर करती है। दूसरे शब्दों में, नदियाँ मानवीय और अमानवीय संसारों के साझा अनुभवों की झलकियों से भरी हुई हैं। यह दर्द, डर, खुशी और उपज की स्मृति को दर्ज करती है। लंबे शुष्क ग्रीष्मकाल में, सूखे पड़े खेत बाढ़ के लिए भी उतने ही लालायित रहते है  जितना की उसके वापस पीछे हटने के लिए। असल में नदियां चीज़ों के बनने और बिगड़ने के केंद्र में हैं। नदियाँ स्मृति हैं। यह लेख इसी सोच के आस पास बुना हुआ है कि नदियाँ कोविड के मद्देनजर मानव जाति की विफलता, दुःख और भय को को साझा करने में कितनी महत्वपूर्ण हैं। यह दर्शाता है कि कैसे जिंदगियाँ मृत पड़ी होती है और, एक बार दाह संस्कार हो जाने के बाद, नदी के किनारे बहने वाली तलछट बन जाती है। ये तलछट मौत और संक्रमण का इतिवृत नहीं हैं। यह एक सूक्ष्म जगत है कि कैसे जीवन और मृत्यु का चक्र नदी की स्मृति के साक्षी बनने का एक रूप बन जाता है।

जैसे-जैसे अंतिम संस्कार के लिए शव बढ़ रहे हैं, नदियाँ और उनके घाट भी दर्द और क्षति के स्थल बनते जा रहे हैं। घाट जो कभी सूखे पत्तों पर तैरते दीयों से जगमगाते थे; जो समारोहों की पहेलियों की गूँजती आवाज़ और आतिशबाजी के स्थायी मौसमों से भरे रहते, अब शवों की बढ़ती तीव्रता से भरने लगे है। ये सब  एक नदी के जीवन के लिए असामान्य नहीं है – क्योंकि ये और भी बुरे वक्त की गवाह रही है। लेकिन यह निरंकुश, क्षमाशील समय अपने आप में एक विराटता  लिए प्रतीत होता है। यह स्पर्श को हटाकर हमें दूर और पास दोनों ही तरह के दर्द की ओर खींचता है। स्पर्श, मानव अभिव्यक्ति का सबसे मौलिक प्रतिपादन जो आज इस वायरस की चपेट में है। अब हम जानते हैं कि ये दर्द गहरा या सामान्य नहीं है – यह एक ऐसा अनुभव है जो आपको वर्तमान समय में पराजित करता है। यह आपको लम्बी शीत ऋतु में खड़े किसी पेड़ की पत्ती की तरह जमा देता है। आपको बस इसके बीत जाने की प्रतीक्षा करनी होती है। इस दर्द का अंगीकरण अक्सर शोक व्यक्त करने वाले अनुष्ठान के रूपक में दिखलाई पड़ता है। इन अनुष्ठानों को आकार देने के लिए समुदाय, पुनरावृत्ति और साझा स्मृति की भी आवश्यकता होती है। कोविड ने इस मौलिक भावात्मक रूप को स्थगित कर दिया है। लेकिन घाटों पर अपनों को खोने का शोक मना रहे लोग अपनी भावनाओं को नदियों के साथ साझा कर रहे हैं – नदी जो अपने रास्ते से बह रही है। इस समय नदियों के प्रवाह ने राष्ट्रों की मानव निर्मित (कृत्रिम) सीमाओं को तोड़ दिया है जो इतनी नाज़ुक़ और कमजोर हैं कि हमारे दर्द को बाँटने में असफल साबित हुई है। यहाँ, अभी और हर जगह जब हम शोक में डुबे है ये नदी हम सभी को एक साथ ला रही है , उस क्षण के रूप में जो हमें फिर से इंसान बनाता है।

बागमती के तट पर

बागमती नदी, दरभंगा

अपनेपन और गौरव से भरपूर, प्रदूषण और पर्यावरण आंदोलनों के असाधारण सांस्कृतिक इतिहास से परिभाषित, बागमती नदी काठमांडू से निकलती है और बिहार से होकर बहती है, ये जीवन और मरण के चित्रपट का भी प्रतिनिधित्व करती है। ये सभी पलों को संग्रहीत करती है चाहे वो किसी जीत के हो या फिर हाल ही में प्रदूषण और प्लास्टिक तथा जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से मुक्त सांस लेने के लिए चलने वाले इसके संघर्ष के। नदी पर लिखते हुए, ऐनी एम. राडेमाकर हमें बताती है कि कैसे बागमती नदी पुनर्नवीकरण की चिंता के साथ-साथ सांस्कृतिक प्रथाओं की जटिल प्रक्रिया द्वारा परिभाषित की गयी है – नदी के आस पास एक  दृश्य निर्मित होता है जहाँ  “शहरी प्रकृति और शहरी सामाजिक जीवन परस्पर उत्पादित, प्रबलित और अंततः बदलते हैं।[i] बागमती बेसिन दो बड़ी बहनों (कोसी और गंडक) बेसिन के बीच स्थित है, जो बिहार के खेतों में घूमती निकलती है, जो नदी तट के समीप रहने वालों के लिए फसल और उसके बाद आने वाली मौसमी बाढ़ लाती है। ये पहाड़ियों से मैदानी इलाकों तक इसके तट के किनारे रहने वालों के जीवन के लिए आजीविका का स्रोत उपलब्ध करवाती है। लेकिन कोई नदी केवल एक ही अर्थ तक सिमित नहीं रहती। कोविड के दौरान इतिवृत बदलना कठिन है। यहाँ मृत्यु का काला साया है।

अंतरराष्ट्रीय मीडिया में बागमती नदी के तट को मृत्यु के भयानक स्थल के रूप में पहचान मिली है। कोविड -19, वायरस जिसने पिछले एक साल में दुनिया को तबाह कर दिया है – अब शहरी क्षेत्रों से ग्रामीण परिदृश्य की ओर तेजी से बढ़ रहा है। हिमालय से लगा नेपाल देश जिसने पिछले साल कोविड – 19 के मामलों   का ठीक  से प्रबंधन किया था, इस बार के प्रकरणों से अभिभूत हो गया है। 4 मई को, नेपाल ने 7448 नए मामले दर्ज किए, जिसमें 37 पंजीकृत मौतें हुईं – जो कि महामारी के बाद से उच्चतम संक्रमण और मृत्यु दर बन गई। कोविड – 19 के मामले असाधारण रूप से बढ़े हैं, टीके खत्म हो रहे हैं और अस्पतालों में मरीज़ों की सँख्या में तेज़ी देखने को मिल रही हैं। कई आलोचकों ने मीडिया के सहारे वर्तमान स्थिति के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराते हुए आरोप लगाया है कि सरकार भारत से लौटने वाले प्रवासियों को नियंत्रित करने में विफल रही है। ये माना जा रहा है कि नेपाल में कोविड – 19 में होने वाली उछाल के लिए भारत की दूसरी लहर जिम्मेदार है। नेपाल के सैकड़ों तीर्थयात्री कुंभ में शामिल हुए थे – उत्तराखंड में हुआ ये धार्मिक सम्मलेन, विशेषज्ञों के अनुसार, महामारी के इतिहास में सबसे बड़ा सुपर स्प्रेडर है।

साझा धार्मिक संस्कृति और खोखली सीमा (नेपाल और भारत के मध्य) होने के कारण साधुओं और पुजारियों ने कुंभ के दौरान गंगा स्नान में डुबकी लगाने के लिए बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया। अधिकांश मास्क ना लगाने और बिना किसी सामाजिक दूरी के लौटने वाले नेपाली जाँच में संक्रमित पाए गए है। बागमती के तट पर खुले श्मशान के बगल में स्थित पशुपतिनाथ विद्युत शवदाह गृह अपनी क्षमता से दुगना चल रहा है। इतने बड़े पैमाने पर मौतें हो रही है कि नेपाल को दाह संस्कार के लिए अपनी सेना की सहायता लेनी पड़ी। अंतिम संस्कार के लिए कतार में लगे शवों को अस्थायी चिताओं पर जलाया जाने लगा हैं।

भारत से भी इसी तरह की स्थिति बहुत व्यापक रूप से रिपोर्ट की गई और काफी दर्दनाक संकलन उभर कर सामने आ रहे हैं। वायरस अब व्यापक स्तर पर फैल चुका है और देश के आंतरिक हिस्सों में बढ़ रहा है जहाँ स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे पर असंतोषजनक निवेश हुआ है। अब दुनिया में सबसे अधिक संक्रमण और मौत के मामलों में भारत सबसे ऊपर आ गया है। टीकाकरण धीमी गति से चल रहा है और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से ग्रसित सरकार के चलते, भारतीय एक-दूसरे की मदद को आगे आ रहे हैं। एक दिलचस्प लेख में, अरुंधति रॉय के अनुसार भारत का प्रकरण एक ऐसा मामला है जहां “व्यवस्था ध्वस्त नहीं हुई है। बल्कि “सिस्टम” मुश्किल से ही मौजूद था। और इस पृष्ठभूमि में भारतीय एक-दूसरे की मदद कर रहे हैं। सोशल मीडिया के माध्यम से लोग एक दूसरे के लिए खड़े हुए हैं – ना कि सरकार और राजनेता । देखभाल एकता का सबसे नैतिक रूप बनकर उभरा है।

इस संकट में नदियाँ कैसे उभर कर सामने आयी हैं, इसे बिहार राज्य के उदाहरण से समझा जा सकता है। बिहार राज्य की आबादी 10 करोड़ से अधिक है और स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे के मामले में सबसे गरीब राज्यों में से एक है। 7 मई को बिहार में 60 से अधिक मौतों के साथ 15,000 संक्रमण के मामले दर्ज किए गए, और वर्तमान में सक्रिय मामले 1.6 लाख के करीब हैं। उसी दिन पुरे राज्य में तालाबंदी की घोषणा की गई।अब प्रवासी मज़दूरों जो संरचनात्मक रूप से समय के भाग्य तले दब जाते है, जिनमें से अधिकांश भूमिहीन है, जो शहरों से लौटने पर गावों में इस अभूतपूर्व महामारी का सामना करना पड़ रहा है।  भारत में ऐसे फंसे हुए या चलने वाले प्रवासियों की दुर्दशा इतनी गहरी है कि उनकी स्थिति का वर्णन असमानता की कहानी के माध्यम से बताना बेमानी है। यह उस व्यवस्था की एक झलक देता है जिसमें गहराई तक मानवीयता से वंचित करने की क्षमता निहित है तथा  जो अभी भी कुछ को अधिशेष और बाहरी लोगों के रूप में मानता है।

इसी के मद्देनज़र दरभंगा जैसे छोटे शहरों, जहाँ की आबादी 40 लाख के आस पास हैं, में बागमती नदी के किनारे मौत की रैली देखी जा सकती है। ये नदी यहाँ और ऊपरी हिस्से की ओर, खोखली सरहदों के पार, अब उन सारे लोगों के दुखों में भीग गई है जो व्यवस्था द्वारा हरा दिए गए हैं। कोविड से होने वाली मौतों की कहानियाँ और ही है। अधिकांश मरने वाले लोगो को “खांसी – सर्दी” हुयी थी। आम बोलचाल की क्षेत्रीय भाषा में प्रयोग किया जाने वाला शब्द है ” सर्दी  – खांसी”  जो दरअसल कोविड के बारे में चिकित्सा साक्षरता बनाने में प्रशासनिक विफलता को दर्शाता है। और ऐसे में, छोटे नगरों और गांवों के लोग – शहरी लोगों की तरह एक दूसरे की मदद करने के लिए अपने हाल पर छोड़ दिए जाते हैं। हालांकि, भारतीय समाजों का निर्माण करने वाली जाति के प्रहसन से बचना असंभव है – जिसमें जातिवाद शहरी या ग्रामीण में समान गति से पनपता है।

मृत्यु की संख्या के इस विवरण के करीब अंतिम संस्कार भी आता है। बागमती शहर के बीच से होते हुए तहसीलों के मुख्य क्षेत्रों से बहती है जहाँ दाह संस्कार तेज़ी के साथ बढ़ रहे हैं। नदी इस प्रक्रिया की साक्षी है। श्मशान स्थलों से दूर, नेपाल से लेकर बिहार तक के नदी के ये घाट राजनीतिक प्रतिष्ठान की विफलता के गवाह हैं। जहां कुछ घाटों पर दाह संस्कार के लिए जगह ढूंढ रहे हैं, वहीं कुछ अब तैरते नजर आ रहे हैं। अंतहीन मौतें और उनका राख हो जाना, शवों का तैरना और उसी में बहते चले जाना।   ये सारे दृश्य उभर कर सामने आने लगे है और हमारे सामने हमारी नैतिक विफलता के रूप में चौंकाने लगते है। और ये सब इन सारी स्मृतियों की गवाही का काम करेंगी और हमें ये सब भूलने से रोकेंगी। नदी की तलछट के रूप में, एक दिन जब इतिहास का परीक्षण होगा तब वे एक अनुमोदक के रूप में सामने आएंगे।

इस वक़्त जब मौतों का पैमाना इतना विशाल है कि ठीक होने की जो ताकत शेष है, वह पहले से ही दूसरे द्वारा खत्म कर दी गई है। और इस वजह से जिन्हें भी इससे नुकसान हुआ है उन लोगों के लिए दुःख प्रकट करने और शोक मनाने के लिए जगह खोजना असंभव हो जाता है। इस समय हमारे पास नुकसान को आंकने के लिए कोई प्रचलित भाषा नहीं है।  असल में राजनीतिक प्रतिष्ठान की विफलता मानवता से वंचित रखने वाले और अन्याय के नैतिक ब्रह्मांड में एक सा टुकड़ा मात्र है। अब हमारे इस रास्ते में नदियाँ और घाट हमारे दुःख को साझा करते रहेंगे जब तक हमारी सांसो का दम वापस नहीं आ जाता – जीवन के लौटने की प्रतीक्षा में।

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This article has been translated by Dinesh Rajak, a Ph.D. student at the Centre for the Study of Social System (CSSS) and Vivek Vasuniya, a Ph.D. student at Centre for the Study of Regional Development (CSRD), Jawaharlal Nehru University (JNU), New Delhi.


[i] ऐनी एम. राडेमाकर, रैनिंग द रिवर: अर्बन इकोलॉजीज एंड पॉलिटिकल ट्रांसफॉर्मेशन इन काठमांडू, ड्यूक यूनिवर्सिटी प्रेस।

By Jitu

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